भारत के रुपए का अमरीकी डॉलर के मुकाबले गिरना लगातार जारी है लेकिन क्या यह चिंता की बात है? अगर हाँ तो इसे संभालेगा कौन?
द हिन्दू अख़बार के कार्यकारी सम्पादक एम के वेणु दे रहे हैं कुछ अहम सवालों के जवाब -
रुपया गिर क्यों रहा है?
सीधे तौर पर बाज़ार का सिद्धांत है. साल 2008 में आई आर्थिक मंदी के बाद से अमरीका ने अपनी अर्थव्यवस्था को मदद देने के लिए एक अनुमान के मुताबिक़ बाज़ार में करीब दो खरब डॉलर डाले थे. यह रकम भारत, चीन सहित दुनिया भर की कई अर्थव्यवस्थाओं में लगी. अब अमरीका इसे वापस खींचने की बात कर रहा है. इसलिए भाव बढ़ रहे हैं और भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की मुद्राएँ गिर रही हैं. यह प्याज के भाव की तरह है. ज़्यादा प्याज कम भाव, कम प्याज ज़्यादा भाव.
दूसरा कारण है कि भारत का आयात तेज़ी से बढ़ा है चाहे तेल हो या सोना. भारत का आयात, निर्यात की तुलना में बहुत बढ़ा है.
रूपए की यह गिरावट कहाँ तक जा सकती है?
यह अमरीका के रुख़ पर निर्भर करता है. अगर अमरीका डॉलर को आराम से खींचता है तो अन्य मुद्राएँ अपने आप को संभाल सकती हैं वरना इसमें और तेज़ी आएगी. दूसरा ऐसा लगता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक रुपए को और ज़्यादा गिरने नहीं देगा और अपने पास रखे डॉलर बेचकर रूपए को एक डॉलर के मुकाबले वापस 56 या 57 रुपए तक लाने की कोशिश करेगा.
क्या भारत सरकार को चिंतित होने की ज़रुरत है?
यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसकी वजह से सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के सारे कदम प्रभावित होते हैं. भारत में जो आयात-निर्यात के अंतर से उपजा असंतुलन है उससे निपटने के लिए सालाना करीब सौ अरब डॉलर का विदेशी निवेश चाहिए जो अब तक हो ही जाता है. पिछले साल भी यह हुआ था और इस साल भी लगता है कि यह हो ही जाएगा.
रुपए के गिरने की वजह से क्लिक करें विदेशी निवेशक इससे भारत की ओर आकर्षित भी होते हैं.
मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लिए इसका अर्थ?
मध्यम वर्ग के बहुत सारे बच्चे विदेश में पढ़ने जाते हैं. अगर फ़ीस में दस फ़ीसदी की भी बढ़ोत्तरी होती है तो उनके लिए यह बहुत बड़ा धक्का होगा.
दूसरी तरफ यह ग़रीब आदमी, निम्न मध्यम वर्गीय आदमी के लिए जीवन मुश्किल करेगा क्योंकि डीज़ल के दाम बढ़ेंगे तो उसका असर आटा दाल सब्ज़ी हर चीज़ पर होगा.
द हिन्दू अख़बार के कार्यकारी सम्पादक एम के वेणु दे रहे हैं कुछ अहम सवालों के जवाब -
रुपया गिर क्यों रहा है?
सीधे तौर पर बाज़ार का सिद्धांत है. साल 2008 में आई आर्थिक मंदी के बाद से अमरीका ने अपनी अर्थव्यवस्था को मदद देने के लिए एक अनुमान के मुताबिक़ बाज़ार में करीब दो खरब डॉलर डाले थे. यह रकम भारत, चीन सहित दुनिया भर की कई अर्थव्यवस्थाओं में लगी. अब अमरीका इसे वापस खींचने की बात कर रहा है. इसलिए भाव बढ़ रहे हैं और भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की मुद्राएँ गिर रही हैं. यह प्याज के भाव की तरह है. ज़्यादा प्याज कम भाव, कम प्याज ज़्यादा भाव.
दूसरा कारण है कि भारत का आयात तेज़ी से बढ़ा है चाहे तेल हो या सोना. भारत का आयात, निर्यात की तुलना में बहुत बढ़ा है.
रूपए की यह गिरावट कहाँ तक जा सकती है?
यह अमरीका के रुख़ पर निर्भर करता है. अगर अमरीका डॉलर को आराम से खींचता है तो अन्य मुद्राएँ अपने आप को संभाल सकती हैं वरना इसमें और तेज़ी आएगी. दूसरा ऐसा लगता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक रुपए को और ज़्यादा गिरने नहीं देगा और अपने पास रखे डॉलर बेचकर रूपए को एक डॉलर के मुकाबले वापस 56 या 57 रुपए तक लाने की कोशिश करेगा.
क्या भारत सरकार को चिंतित होने की ज़रुरत है?
यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसकी वजह से सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के सारे कदम प्रभावित होते हैं. भारत में जो आयात-निर्यात के अंतर से उपजा असंतुलन है उससे निपटने के लिए सालाना करीब सौ अरब डॉलर का विदेशी निवेश चाहिए जो अब तक हो ही जाता है. पिछले साल भी यह हुआ था और इस साल भी लगता है कि यह हो ही जाएगा.
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मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लिए इसका अर्थ?
मध्यम वर्ग के बहुत सारे बच्चे विदेश में पढ़ने जाते हैं. अगर फ़ीस में दस फ़ीसदी की भी बढ़ोत्तरी होती है तो उनके लिए यह बहुत बड़ा धक्का होगा.
दूसरी तरफ यह ग़रीब आदमी, निम्न मध्यम वर्गीय आदमी के लिए जीवन मुश्किल करेगा क्योंकि डीज़ल के दाम बढ़ेंगे तो उसका असर आटा दाल सब्ज़ी हर चीज़ पर होगा.
धन्यवाद् हर्षवर्धन जी !!
ReplyDeleteगुल्लक से जुड़े रहिये आगे भी कुछ न कुछ निकलता रहेगा
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