इस्लामी आतंकवाद जिन्हें अपना शिकार बनाता है, वे अमीर पश्चिमी देशों के लोग नहीं हैं, बल्कि वे मुस्लिम देशों के ही गरीब हैं। यह वह सबसे बड़ा सच है, जो हमें बताता है कि जेहादियों के दावे कितने गलत हैं। वे जिन आम लोगों, आदमियों और औरतों की हिमायत की बात करते हैं, उन्हें ही सबसे बड़ी संख्या में मारते हैं।
आतंकवाद से जंग इसी राह पर चलकर जीती जाएगी। और इसका फायदा पूरी दुनिया को मिलेगा।
पश्चिमी देशों में आतंकवादी वारदात को लेकर जो सुर्खियां बनती हैं, वे उन आंकड़ों से निकलती हैं, जो बताते हैं कि आतंकवाद बढ़ रहा है, ज्यादा से ज्यादा लोग इसकी वजह से अपनी जान से हाथ धो रहे हैं।
लेकिन असल सच इस ब्योरे में छिपा है कि जो मारे जा रहे हैं, वे कौन हैं?
यूँ तो आतंकवादी हमले लंदन, न्यूयॉर्क, मैड्रिड,सिडनी वगैरह में भी हो चुके हैं। लेकिन पेशावर के स्कूल में जो तालिबानी हमला हुआ, उसमें 141 लोग मारे गए, जिनमें 132 स्कूली बच्चे थे। यह घटना हमें बताती है कि मजहब के नाम पर गुमराह कुछ लोगों की करतूत की कितनी बड़ी कीमत मुस्लिम देश चुका रहे हैं।
नेशनल कंसोर्टियम फॉर द स्टडी ऑफ टेररिज्म ऐंड रिस्पांस। यह मेरीलैंड यूनिवर्सिटी में एक संस्था है जो ग्लोबल टेररिज्म डाटाबेस तैयार करती है। इसके डाटा के अनुसार, वर्ष 2011 में इनकी संख्या 5,000 थी, जो 2012 में 8,000 हो गई और इसके अगले वर्ष यानि 2013 में बढ़कर 12,000 हो गई। लेकिन ये आंकड़े अपने आप में पूरी कहानी नहीं हैं। अगर हम पश्चिमी देशों के बाहर देखें, तो ये आंकड़े कुछ भी नहीं हैं।
जब ‘आतंक से जंग’ की बात की जाती है, तो यह सिर्फ एक नारा होता है, ये असल जंग नहीं है। लेकिन इसका जो शिकार बन रहे हैं, वे असल लोग हैं। इसमें भी सबसे ज्यादा दुनिया भर के मुसलमान हैं, जो भारी संख्या में मारे जा रहे हैं। दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क के मुकाबले पाकिस्तान ने इस जंग में सबसे ज्यादा लोग खोए हैं।
पेशावर में इस सप्ताह हुए हमले के बाद पाकिस्तान के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह कौन-सा रास्ता अपनाएगा। आतंकवाद के खिलाफ इस मुल्क का सबसे बड़ा हथियार गोलियां नहीं हैं, बल्कि शिक्षा है। सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसकी लड़कियां और लड़के स्कूलों में पढ़ने के लिए जाएं।
ब्रिटिश पत्रकार, बेन दोहर्ती का एक लेख पढ़ा मैंने जिसमे उन्होंने अपनी पाकिस्तान यात्रा का जिक्र किया था उन्होंने लिखा -
“पाकिस्तान की स्वात घाटी में मैं दो साल पहले एक स्कूल में गया था, जिसका संचालन वहां की फौज कर रही थी। इस स्कूल का नाम था- सबाऊन। उर्दू भाषा में इसका अर्थ हुआ सुबह की पहली किरण। यह स्कूल उन बच्चों का था, जो कभी आत्मघाती हमलावर थे। यहां हरी और सफेद धारियों वाली वरदी में वे बच्चे चुपचाप बैठे हुए थे, जिनका अपहरण करके तालिबान ने कभी ब्रेनवाश किया था। बाद में वे या तो पकड़ लिए गए या फिर उन्हें पहाड़ में आतंकवादी ठिकानों से मुक्त कराया गया था। इनमें से कुछ हथियार चला चुके थे और कुछ तो हत्याएं भी कर चुके थे।
मैं जिस 15 साल के एक लड़के से मिला, सर्दी की एक सुबह आतंकवादियों ने उसकी कमर में शक्तिशाली बम बांध दिए थे। उसे अच्छी तरह से समझा दिया गया था कि पुलिस चौकी पर पहुंचकर कौन-सी दो तारों को आपस में जोड़ देना है। उन्होंने उसे पुलिस चौकी के पास छोड़ दिया और कहा कि धीरे-धीरे उनकी तरफ चला जाए। तभी एक अफसर की नजर इस लड़के पर पड़ गई, जो डर से बुरी तरह कांप रहा था। और फिर जो हुआ, उसमें यह बच्चा इस स्कूल में पहुंच गया।
स्कूल का इंचार्ज फौजी वरदी से सज्जित एक मेजर था। मैंने उससे पूछा, इस उग्रवाद का असली कारण क्या है? आखिर क्या वजह है कि ये बच्चे मजहब की एक गलत व्याख्या के चलते लोगों को जान से मारने के लिए राजी हो जाते हैं? यह जानते हुए भी कि उनकी कमर में जो बम बंधे हैं, वे खुद उन्हें भी मार डालेंगे?
उसका जवाब था- गरीबी, इसकी वजह उनकी गरीबी और जहालत है। उसने बताया कि जो बच्चे स्कूलों में हैं, वे बड़े होकर सुसाइड बॉम्बर नहीं बनते। वे नौजवान, जिनके पास अच्छी नौकरियां हैं, वे पहाड़ में तालिबान का साथ देने के लिए नहीं जाते। लड़कियां पढ़ती हैं, तो पूरे परिवार की गरीबी खत्म हो जाती है। पढ़ी-लिखी औरतें अपने बच्चों को उग्रवादी नहीं बनने देतीं।"
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