घर की खिड़की के बहार आज जब मै कुछ बच्चो को खेलते देखता हु
यह सोचता हु की समय वह मेरा किस तरह निकल गया,
समय वह मेरा, उँगलियों से मानो पतली रेत सा किस तरह फिसल गया।
समय, जो कभी मेरे पास भरपूर था ,
समय, जिससे बेखबर मै मौज मस्ती में चूर था ,
समय, जिसके होने का पहले मुझे एहसास ही न था ,
समय, जिसका बीत जाना ज़्यादा कुछ ख़ास न था।
अब उसी समय को पाने के लिए मै बेचैन हो छटपटाता हु,
उस समय की खोज में कभी परेशान, तो कभी खुद पर ही खीज जाता हु।
उस समय को जिसे कभी मैंने नाकारा था,
उसकी अधिकता के अभिशाप को मैंने जब एक वरदान माना था।
इस महापाप को तुम नाही करो तोह ही अच्छा है,
इस समय के मायाजाल में तुम न ही फसो तोह ही अच्छा है।
भगवान् न करे की तुम भी कभी जब खिड़की के बाहर कुछ बच्चो को खेलते देखो,
तो तुम्हे यह न सोचना पड़े की,
समय वह तुम्हारा जाने कहा निकल गया,
समय वह तुम्हरा उँगलियों से पतली रेत सा न जाने कहा फिसल गया।